एक चेहरा था ,दो आखें थीं ,हम भूल पुरानी कर बैठे .


एक किस्सा जी कर खुद को ही, हम एक कहानी कर बैठे …

हम तो अल्हड-अलबेले थे ,खुद जैसे निपट अकेले थे ,


मन नहीं रमा तो नहीं रमा ,जग में कितने ही मेले थे ,


पर जिस दिन प्यास बंधी तट पर ,पनघट इस घट में अटक गया .


एक इंगित ने ऐसा मोड़ा,जीवन का रथ, पथ भटक गया ,


जिस “पागलपन” को करने में ज्ञानी-ध्यानी घबराते है ,


वो पागलपन जी कर खुद को ,हम ज्ञानी-ध्यानी कर बैठे.


एक चेहरा था ,दो आखें थीं ,हम भूल पुरानी कर बैठे .


एक किस्सा जी कर खुद को ही, हम एक कहानी कर बैठे .

परिचित-गुरुजन-परिजन रोये,दुनिया ने कितना समझाया


पर रोग खुदाई था अपना ,कोई उपचार ना चल पाया ,


एक नाम हुआ सारी दुनिया ,काबा-काशी एक गली हुई,


ये शेरो-सुखन ये वाह-वाह , आहें हैं तब की पली हुई


वो प्यास जगी अन्तरमन में ,एक घूंट तृप्ति को तरस गए ,


अब यही प्यास दे कर जग को ,हम पानी-पानी कर बैठे .


एक चेहरा था ,दो आखें थीं ,हम भूल पुरानी कर बैठे .

एक किस्सा जी कर खुद को ही, हम एक कहानी कर बैठे .


क्या मिला और क्या छूट गया , ये गुना-भाग हम क्या जाने ,


हम खुद में जल कर निखरे हैं ,कुछ और आग हूँ क्या जाने ,


सांसों का मोल नहीं होता ,कोई क्या हम को लौटाए ,


जो सीस काट कर हाथ धरे , वो साथ हमारे आ जाए ,


कहते हैं लोग हमें “पागल” ,कहते हैं नादानी की है ,


हैं सफल “सयाना” जो जग में , ऐसी नादानी कर बैठे


एक चेहरा था ,दो आखें थीं ,हम भूल पुरानी कर बैठे .


एक किस्सा जी कर खुद को ही, हम एक कहानी कर बैठे .

-कुमार विश्वास

Hum Ek Kahani Kar Baithe – Kumar Vishwas Poetry