दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे – गोपालदास “नीरज” शायरी

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गोपालदास नीरज हिन्दी साहित्यकार, शिक्षक एवं फ़िल्मों के गीत लेखक थे. प्रस्तुत है उनकी एक कविता जिसका शीर्षक है “दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे “.

दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे


ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है।

रोम-रोम में खिले चमेली


साँस-साँस में महके बेला,


पोर-पोर से झरे मालती


अंग-अंग जुड़े जुही का मेला


पग-पग लहरे मानसरोवर, डगर-डगर छाया कदम्ब की


तुम जब से मिल गए उमर का खंडहर राजभवन लगता है।


दो गुलाब के फूल…

छिन-छिन ऐसा लगे कि कोई


बिना रंग के खेले होली,


यूँ मदमाएँ प्राण कि जैसे


नई बहू की चंदन डोली


जेठ लगे सावन मनभावन और दुपहरी सांझ बसंती


ऐसा मौसम फिरा धूल का ढेला एक रतन लगता है।


दो गुलाब के फूल…

जाने क्या हो गया कि हरदम


बिना दिये के रहे उजाला,


चमके टाट बिछावन जैसे


तारों वाला नील दुशाला


हस्तामलक हुए सुख सारे दुख के ऐसे ढहे कगारे


व्यंग्य-वचन लगता था जो कल वह अब अभिनन्दन लगता है।


दो गुलाब के फूल…

तुम्हें चूमने का गुनाह कर


ऐसा पुण्य कर गई माटी


जनम-जनम के लिए हरी


हो गई प्राण की बंजर घाटी


पाप-पुण्य की बात न छेड़ों स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा


याद किसी की मन में हो तो मगहर वृन्दावन लगता है।


दो गुलाब के फूल…

तुम्हें देख क्या लिया कि कोई


सूरत दिखती नहीं पराई


तुमने क्या छू दिया, बन गई


महाकाव्य कोई चौपाई


कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमरिनी


जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है।


दो गुलाब के फूल…

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