संस्कृत विद्या श्लोक | Vidya Shlok in Hindi

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विद्या (शिक्षा) का अर्थ किसी विशेष विषय का अध्ययन करने या जीवन की शिक्षा का अनुभव करने के बाद, किसी व्यक्ति द्वारा प्राप्त ज्ञान है, जो उसे समझ प्रदान करता है।

कुछ लोकप्रिय विद्या के संस्कृतश्लोक निम्नलिखित हैं।

श्लोक 1

क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।


क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥

अर्थ- एक-एक क्षण गवाये बिना विद्या सीखनी चाहिए; और एक-एक कण बचाकर धन ईकट्ठा करना चाहिए। क्षण गवानेवाले को विद्या और कण को क्षुद्र समझनेवाले को धन कहाँमिलता है?

श्लोक 2

विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो


धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा ।


सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्


तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥

अर्थ- विद्या अनुपम कीर्ति है; भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह में रति समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल-महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है; इस लिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बनना चाहिए।

श्लोक 3

श्रियः प्रदुग्धे विपदो रुणद्धि यशांसि सूते मलिनं प्रमार्ष्टि ।


संस्कारशौचेन परं पुनीते शुद्धा हि वुद्धिः किल कामधेनुः ॥

अर्थ- विद्या सचमुच कामधेनु है, क्योंकि वह संपत्ति को दोहती है, विपत्ति को रोकती है, यश दिलाती है, मलिनता धो देती हैऔर संस्काररुप पावित्र्य द्वारा अन्य को पावन करती है।

श्लोक 4

हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता ।


कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना ॥

अर्थ- जो चोरों के नजर नहीं आती, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहीं होता, वह विद्या के अलावा कौन सा धन हो सकता है?

श्लोक 5

ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते ।


दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥

अर्थ- विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका बंटवारा नहीं हो सकता, जिसे चोर चोरी नहीं कर सकतेऔर दान करने से जिसमें कमी नहीं आती।

श्लोक 6

विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।


पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥

अर्थ- विद्या से विनय (नम्रता) आती है, विनय से पात्रता (सजनता) आती है पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।

श्लोक 7

कुत्र विधेयो यत्नः विद्याभ्यासे सदौषधे दाने ।


अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ॥

अर्थ- यत्न कहाँ करना? विद्याभ्यास, सदौषध और परोपकार में अनादर कहाँ करना? दुर्जन, परायी स्त्री और परधन में।

श्लोक 8

विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य ।


कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥

अर्थ- विद्यावान और विनयी पुरुष किसी मनुष्य का चित्त हरण नहीं करता? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहीं देता।

श्लोक 9

विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ।


कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ॥

अर्थ- कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा, कोयल का रुप स्वरऔर स्त्री का रुप पतिव्रत्य है।

श्लोक 10

रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।


विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥

अर्थ- रुपसंपन्न, यौवनसंपन्नऔर चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहीं देते।

श्लोक 11

विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः ।


अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥

अर्थ- विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा– ये परम् कल्याणकारक हैं।

श्लोक 12

न चोरहार्यं न च राजहार्यंन भ्रातृभाज्यं न च भारकारी ।


व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥

अर्थ- विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहीं सकता, राजा ले नहीं सकता, भाईयों में उसका भाग नहीं होता, उसका भार नहीं लगताऔर खर्च करने से बढता है। सचमुच, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है ।

श्लोक 13

नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।


नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥

अर्थ- विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहींऔर विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं।

श्लोक 14

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।


अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥

अर्थ- आलसी इन्सान को विद्या कहाँ? विद्याविहीन को धन कहाँ? धनविहीन को मित्र कहाँ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ?

श्लोक 15

पठतो नास्ति मूर्खत्वं अपनो नास्ति पातकम् ।


मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥

अर्थ- पढनेवाले को मूर्खत्व नहीं आता; जपनेवाले को पातक नहीं लगता; मौन रहनेवाले का झगडा नहीं होताऔर जागृत रहनेवाले को भय नहीं होता।

श्लोक 16

गीती शीघ्री शिरः कम्पी तथा लिखित पाठकः ।


अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥

अर्थ- गाकर पढना, शीघ्रता से पढना, पढते हुए सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ जाना, अर्थ न जानकर पढनाऔर धीमा आवाज होना; ये छ: पाठक के दोष हैं।

श्लोक 17

विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः ।


अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥

अर्थ- विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा– ये परम् कल्याणकारक हैं।

श्लोक 18

मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् ।


लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम् किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥

अर्थ- विद्या माता की तरह रक्षण करती है, पिता की तरह हित करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को रीझाती है, शोभा प्राप्त कराती हैऔर चारों दिशाओं में कीर्ति फैलाती है। सचमुच, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या-क्या सिद्ध नहीं करती?

श्लोक 19

द्यूतं पुस्तकवाद्ये च नाटकेषु च सक्तिता ।


स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥

अर्थ- जुआ, वाद्य, नाट्य (कथा/फिल्म) में आसक्ति, स्त्री (या पुरुष), तंद्रा, और निंद्रा– ये छ: विद्या में विघ्नरुप होते हैं।

श्लोक 20

विद्या वितर्को विज्ञानं स्मृतिः तत्परता क्रिया ।


यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥

अर्थ- विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परताऔर कार्यशीलता, ये छ: जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं।

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